कहकर 'जय रघुराज ' की बोले अन्जनिलाल----
"तुझको ही संसार में कहते हैं क्या काल ?
तू लोक्जीत ,तू भवन जीत जगजीत बखाना जाता है I
पर यह शारीर है रामदास जो कालजीत कहलाता है II
मैं महा काल हूँ अरे कल , तुझकाल का विकराल हूँ मैं I
जिसके आधीन है शक्ति तेरी , उस महाशक्ति का लाल हूँ मैं II”
यह कह झट से झपटे पकड़ा – उस करूर काल को क्षण भर में I
ज्यों बालकाल में ले छलांग था धरा दिवाकर को कर में II
त्रिभुवन में हाहाकार हुआ , हिल गया इंद्रपुर ब्रह्मासन I
कैलाश – शिखर पर दोल गया – कैलाश नाथ का योगासन II
इन्द्रादिक सब देवता हो अत्यंत उदास I
आए करने प्राथना --- महावीर के पास II
“बजरंगी हो जाओ शांत सुरगण सब विनय कर रहे हैं I
प्राकृतिक खेल मिट जायेगा , इस कारण देव डर रहे हैं II
लंका को फूंको क्षार करो , कंचन के कोठे तोड़ो तुम I
पर वीर हमारे आग्रह से इस समय कल को छोड़ो तुम II”
छोड़ दिया हनुमान ने अपने कर से काल I
देख दशानन और फिर गरजे आंख निकाल II
इतने में लंका को देखा तो वह अत्यंत चमकती थी I
ज्वाला ज्यों बदती जाती थी त्यों कंचन ज्योति दमकती थी II
आँखों में खटका स्वर्ण तेज सोचा परिणाम लापत का है I
जा पहुंचे तभी सुरंगों में – देखा कोई मुर्दा लटका है II
नीचे सर , उपर पग उसके सांकल से जकड़ी बाहें थी I
फिर देखा मुर्दा जिन्दा है , धीमी धीमी कुछ आहें थी II
कर मुक्त उस बजरंगी ने ‘भय तजो और शांत ’ कहा I
तब सावधान होकर उसने अपना सारा वृतांत कहा II
“धन्य आपको आपने जीवन किया प्रदान I
नाम शानेस्चार दास का सुनिए दया निधान II
मैं अपना फल बतलाने को दशमुख के सम्मुख आया था I
‘आगई साढ़ेसाती तुझपर ’ यह मैंने उसे बतलाया था II
सुनते ही वह तो भवक उठा आँखों को मुझपर लाल किया I
‘पहले तू भोग साडेसाती ’ यह कह बंधी तत्काल किया II
अब तुमने जो उपकार किया उसका है प्रत्युपकार नहीं I
कुछ सेवा लो आभारी से तो अधिक रहेगा भार नहीं II
यह सुनकर बोले महावीर – “यदि सचमुच तुम्ही शनैश्चर हो I
तो आओ थोडा काम करो , जिसका प्रभाव लंका पर हो II
इस चमक –दमक की नगरी पर अपनी दृष्टि फिराओ तुम I
सचमुच है दशा तुम्हारी तो कंचन को लोहा बनाओ तुम II”
दृष्टि शनैश्चर की पड़ी छाया तिमिर अपार I
लंका काली पड़ गयी , गरजे पवनकुमार II
यों उलट पुलट पुर दहन किया मद चूर कर दिया रावण का I
सम्पूर्ण नगर को फूंक दिया घर छोड़ा एक वभिशण का II
सोने की भस्म बनाकर यों कुछ कुछ अलसाने लगे बली I
कूदे तत्काल समुद्र मध्य , निज पूंछ बुझाने लगे बली II
पूंछ बूझा श्रम दूर कर ले छोटा अकार I
पहुंचे माता के निकट फिर श्री वायु कुमार II
बोले – “अब चित उचटता है , अतएव विदा करिएगा माँ I
फिर हाथ कृपा का इस सर पर चलती बिरियाँ धरिएगा माँ II
प्रभु ने जैसे मुंदरी दी थी दें चिन्ह मात भी निज कर से I
सन्देश कहें जो कहना हो कह दूंगा सब श्री रघुबर से II”
इन वचनों से मात को हुआ पूर्ण आह्लाद I
दिया पुत्र हनुमान को आशीर्वाद प्रसाद II
बोलीं –“ लो मेरी चूड़ामणि , उनके चरणों में रख देना I
कर जोड़ और से मेरी फिर , इस भांति निवेदन कर देना II
कर्तव्य समझ कर वे अपना मेरा संकट संबरण करें I
जो बाण जयंता पर छोड़ा वह कहाँ गया ! फिर ग्रहण करें II
यदि एक मॉस के भीतर ही प्रभु आकार नहीं छुड़ायंगे I
तो कह देना जतला देना , फिर मुझे न जीती पायें गे II”
बलवीर , उधर तुम जाते हो , क्या पता इधर क्या होना है I
सांत्वना मिली थी कुछ तुम से , फिर वही रत दिन का रोना है II
पर क्या करिए, परवशता है ! इस कारण धीर धर रही हूँ I
छाती पर पत्थर रखकर मैं तुम को विदा कर रही हूँ II”
ढाढस दे कर शांत कर समझकर बहु बार I
विदा हुए आशीष ले ---श्री अंजनीकुमार II
चलते चलते ऐसे गरजे फट गए कलेजे असुरों के I
वह प्रलय मेघ – सा शब्द हुआ गिर गए गर्भ निशाचारियों के II
सुन अट्टहास का विकट शब्द पृथ्वी , पहाड़ तक दोल उठे I
पहचान घोष बजरंगी का इस पार कीशगण बोल उठे II
Extract from
Radhay Shyam ( Ramayan)
"तुझको ही संसार में कहते हैं क्या काल ?
तू लोक्जीत ,तू भवन जीत जगजीत बखाना जाता है I
पर यह शारीर है रामदास जो कालजीत कहलाता है II
मैं महा काल हूँ अरे कल , तुझकाल का विकराल हूँ मैं I
जिसके आधीन है शक्ति तेरी , उस महाशक्ति का लाल हूँ मैं II”
यह कह झट से झपटे पकड़ा – उस करूर काल को क्षण भर में I
ज्यों बालकाल में ले छलांग था धरा दिवाकर को कर में II
त्रिभुवन में हाहाकार हुआ , हिल गया इंद्रपुर ब्रह्मासन I
कैलाश – शिखर पर दोल गया – कैलाश नाथ का योगासन II
इन्द्रादिक सब देवता हो अत्यंत उदास I
आए करने प्राथना --- महावीर के पास II
“बजरंगी हो जाओ शांत सुरगण सब विनय कर रहे हैं I
प्राकृतिक खेल मिट जायेगा , इस कारण देव डर रहे हैं II
लंका को फूंको क्षार करो , कंचन के कोठे तोड़ो तुम I
पर वीर हमारे आग्रह से इस समय कल को छोड़ो तुम II”
छोड़ दिया हनुमान ने अपने कर से काल I
देख दशानन और फिर गरजे आंख निकाल II
इतने में लंका को देखा तो वह अत्यंत चमकती थी I
ज्वाला ज्यों बदती जाती थी त्यों कंचन ज्योति दमकती थी II
आँखों में खटका स्वर्ण तेज सोचा परिणाम लापत का है I
जा पहुंचे तभी सुरंगों में – देखा कोई मुर्दा लटका है II
नीचे सर , उपर पग उसके सांकल से जकड़ी बाहें थी I
फिर देखा मुर्दा जिन्दा है , धीमी धीमी कुछ आहें थी II
कर मुक्त उस बजरंगी ने ‘भय तजो और शांत ’ कहा I
तब सावधान होकर उसने अपना सारा वृतांत कहा II
“धन्य आपको आपने जीवन किया प्रदान I
नाम शानेस्चार दास का सुनिए दया निधान II
मैं अपना फल बतलाने को दशमुख के सम्मुख आया था I
‘आगई साढ़ेसाती तुझपर ’ यह मैंने उसे बतलाया था II
सुनते ही वह तो भवक उठा आँखों को मुझपर लाल किया I
‘पहले तू भोग साडेसाती ’ यह कह बंधी तत्काल किया II
अब तुमने जो उपकार किया उसका है प्रत्युपकार नहीं I
कुछ सेवा लो आभारी से तो अधिक रहेगा भार नहीं II
यह सुनकर बोले महावीर – “यदि सचमुच तुम्ही शनैश्चर हो I
तो आओ थोडा काम करो , जिसका प्रभाव लंका पर हो II
इस चमक –दमक की नगरी पर अपनी दृष्टि फिराओ तुम I
सचमुच है दशा तुम्हारी तो कंचन को लोहा बनाओ तुम II”
दृष्टि शनैश्चर की पड़ी छाया तिमिर अपार I
लंका काली पड़ गयी , गरजे पवनकुमार II
यों उलट पुलट पुर दहन किया मद चूर कर दिया रावण का I
सम्पूर्ण नगर को फूंक दिया घर छोड़ा एक वभिशण का II
सोने की भस्म बनाकर यों कुछ कुछ अलसाने लगे बली I
कूदे तत्काल समुद्र मध्य , निज पूंछ बुझाने लगे बली II
पूंछ बूझा श्रम दूर कर ले छोटा अकार I
पहुंचे माता के निकट फिर श्री वायु कुमार II
बोले – “अब चित उचटता है , अतएव विदा करिएगा माँ I
फिर हाथ कृपा का इस सर पर चलती बिरियाँ धरिएगा माँ II
प्रभु ने जैसे मुंदरी दी थी दें चिन्ह मात भी निज कर से I
सन्देश कहें जो कहना हो कह दूंगा सब श्री रघुबर से II”
इन वचनों से मात को हुआ पूर्ण आह्लाद I
दिया पुत्र हनुमान को आशीर्वाद प्रसाद II
बोलीं –“ लो मेरी चूड़ामणि , उनके चरणों में रख देना I
कर जोड़ और से मेरी फिर , इस भांति निवेदन कर देना II
कर्तव्य समझ कर वे अपना मेरा संकट संबरण करें I
जो बाण जयंता पर छोड़ा वह कहाँ गया ! फिर ग्रहण करें II
यदि एक मॉस के भीतर ही प्रभु आकार नहीं छुड़ायंगे I
तो कह देना जतला देना , फिर मुझे न जीती पायें गे II”
बलवीर , उधर तुम जाते हो , क्या पता इधर क्या होना है I
सांत्वना मिली थी कुछ तुम से , फिर वही रत दिन का रोना है II
पर क्या करिए, परवशता है ! इस कारण धीर धर रही हूँ I
छाती पर पत्थर रखकर मैं तुम को विदा कर रही हूँ II”
ढाढस दे कर शांत कर समझकर बहु बार I
विदा हुए आशीष ले ---श्री अंजनीकुमार II
चलते चलते ऐसे गरजे फट गए कलेजे असुरों के I
वह प्रलय मेघ – सा शब्द हुआ गिर गए गर्भ निशाचारियों के II
सुन अट्टहास का विकट शब्द पृथ्वी , पहाड़ तक दोल उठे I
पहचान घोष बजरंगी का इस पार कीशगण बोल उठे II
Extract from
Radhay Shyam ( Ramayan)
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